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Raja Ram Mohan Roy Biography in Hindi | राज राम मोहन राय का जीवन परिचय

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हमारा आज का आर्टिकल एक भारतीय क्रांतिकारी राजा राम मोहन के बारे में हैं जिसमें हम राज राम मोहन राय का जीवन परिचय राज राम मोहन राय का जीवन परिचय ( Raja Ram Mohan Roy Biography in Hindi ) को जानेंगे।

हम अगर अपना इतिहास उठाकर देखें तो जान पाएंगे की हमें अपनी आज़ादी के लिए ना केवल अंग्रेजों से लड़ना पड़ा बल्कि समाज में फैले भ्रम और विकृत कुरुतियों से भी जंग लड़नी पड़ी जो की बेहद कठिन था। राज्य राम मोहन राय एक ऐसे ही व्यक्तित्व के धनी थे जिन्होंने अपने संघर्ष और प्रतिभा से एक नया भारत गढ़ा

अपने देश के विकास के लिए कई अथक और अविस्मरणीय प्रयास किए। आइए जानते हैं उनके जीवन से जुड़ी घटनाओं को राज राम मोहन राय का जीवन परिचय ( Raja Ram Mohan Roy Biography in Hindi ) आर्टिकल में।

राजा राम मोहन रॉय कौन थे

आधुनिक भारत के जनक कहे जाने वाले राजा राम मोहन रॉय आधुनिक भारत के निर्माण में एक अविस्मरणीय योगदान दिया है। उन्होंने ब्रह्म समाज का भी गठन किया था जो की कुछ समय बाद ही अपना अस्तित्व खो चुकी थी लेकिन उन्होंने नव भारत और लोगों के विकास के लिए जो किया उसका आज सम्पूर्ण भारत ऋणी है। राजा राम मोहन रॉय ने सती प्रथा, बाल विवाह और नारी स्वतंत्रता जैसी समस्याओं से भारत को निजात दिलाने के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन लगा दिया।

राजा राम मोहन का जन्म कब हुआ था

राजा राम मोहन का जन्म सन 1772 में 22 मई को बंगाल प्रदेश के हुगली में राधानगर नामक जगह पर हुआ था। ये एक वैष्णव परिवार से ताल्लुक रखते थे, इनके पिता का नाम रामकंतो रॉय और माता का नाम तारिनी था। इसके कुल तीन विवाह हुए थे उसका करण ये था की उस समय को देखते हुए इनका पहला विवाह केवल 9 साल की उम्र में ही कर दिया गया था, जिनकी कुछ समय बाद ही मृत्यु हो गई थी। इसके बाद अगले ही वर्ष यानि 10 साल की उम्र में इनका दूसरा विवाह हुआ था जिससे इनकी 2 पुत्र संतान हुई थी और इसके बाद इनकी दूसरी पत्नी का भी देहांत हो गया, अंत में इनका तीसरा विवाह करवाया गया लेकिन दुर्भाग्यवश इनकी तीसरी पत्नी भी ज्यादा समय तक इनके साथ ना रह सकी और उनकी भी मृत्यु हो गई।

राजा राम मोहन का प्रारम्भिक जीवन

राम मोहन जी बड़े धार्मिक परिवार से संबंध रखते थे, वे बड़े कुशाग्र बुद्धि के बालक थे। उनकी पढ़ाई में रुचि को देखते हुए उनके पिता ने महज 9 साल की उम्र में उन्हें पटना पढ़ने भेज दिया। वहाँ उन्होंने फारसी और अरबी जैसी भाषाओं को सीखने के साथ-साथ इस्लामिक धर्म से जुड़ी बातों का भी अध्ययन किया। जब राम मोहन पटना से पुनः अपने घर को लौटे तो वे एक नवयुवक हो चुके थे, और उनमें काफी बदलाव भी आ चुका था। वे अब पौराणिक मान्यताओं के आवरण से पड़े हो चुके थे, उनकी विचारधारा अपने परिवार से बिल्कुल भी मेल नहीं खाती थी।

“ परमात्मा एक है, और अंधविश्वासों पर आँख मूँदकर विश्वास करना ही अज्ञान का कारण है। केवल एक अस्तित्व ब्रह्मांड का संतुलन बनाए हुए है। ”

उनका कहना था

राजा राम मोहन का अविस्मरणीय योगदान

भारत का अगर पौराणिक इतिहास देखा जाए तो भारत ने आजादी की लड़ाई के साथ-साथ और भी कई कुरुतियों से भी जंग जीती है। उन्होंने कई सामाजिक विकृतियों को मिटाने के लिए जन हित में कदम उठाए, आइए उन्हें जानते हैं।

सती प्रथा का विरोध

राम मोहन ने सती प्रथा का पहली बार विरोध तब किया जब उन्होंने अपने स्वयं के घर में ये होते देखा। अपने बड़े भाई की मृत्यु के बाद उनकी भाभी को भी सती होने के लिए मजबूर  किया गया तो राम मोहन ने इसका विरोध करते हुए इसे रोकने का खूब प्रयत्न किया। किन्तु समाज के ठेकेदारों और उनके खुदके परिवार जन ने कृत्य किया और उनकी भाभी को सती होना पड़ा

सती प्रथा क्या है

सती प्रथा के अनुसार स्त्रियाँ अपने पति की मृत्यु होने पर उसी चिता के साथ बैठकर अपना भी आत्मदाह कर लेती थी। ये प्रथा का प्रचलन माता सती के आत्मदाह से जोड़ा जाता है जब उनके पिता ने भगवान शिव का अपमान किया था और माता ने क्रोश में आकार खुदको अग्नि में जला दिया था। लेकिन इसके बाद भी औरतें अपनी स्वेच्छा से अपने पति के शव के साथ आत्मदाह करती रहीं लेकिन इसके साथ इस प्रथा का अनुसरण उन स्त्रियों को भी करना पड़ता था जो इसके मत में नहीं थी और उन्हें बलपूर्वक अपने पति के मृत शिरी की चिता पर बांधकर जला दिया जाता था। निसंकोच ही ये प्रथा भारतीयों के समान पर एक दाग थी जिसे राजा राम मोहन रॉय ने मिटाने का हर संभव प्रयास किया।

नारी अधिकार, उनकी स्वतंत्रा एवं उनकी शिक्षा

सती प्रथा के अलावा स्त्रियों को अशिक्षा और पराधीनता से भी जूनझना पड़ा। राम मोहन ने विधवाओं के पुनर्विवाह, दहेज प्रथा जैसे मुद्दों पर आवाज उठाई साथ ही उन्होंने महिलाओं की शिक्षा और उनके अधिकारों के हित के लिए कई कदम उठाए।

सामाजिक असमानताओं एवं जातिगत संकीर्णताओं का विरोध

राम मोहन जी ने देश में फैली सामाजिक असमानताओं, अंधविश्वासों और जातिगत संकीर्णताओं का भी विरोध किया। वे नास्तिक नहीं थे किन्तु वे दकियानूसी परंपराओं को नहीं मानते थे, उन्होंने छुआछूत और जातिप्रथा जैसी विकृतियों का भी खंडन किया।

राजा राम मोहन के संघर्ष एवं उनका व्यक्तित्व

राम मोहन जी का जीवन काफी संघर्ष पूर्ण रहा आश्चर्य की बात ये है की उन्होंने कभी स्वयं के हित के बारे में ना सोचते हुए समाज और देश के विकास पर चिंतन किया। जब वे अपनी शिक्षा पूर्ण कर अपने घर को लौटे और उनके परिवार राम मोहन के विचारों से अवगत हुए तो उन्होंने इस पर बाद विरोध जताया। इसके बाद हुआ यूं की राम मोहन अपना घर छोड़ कर तिब्बत की और गए वहाँ भी उन्हें ऐसी ही पिछड़ी मानसिकता वाले लोग मिले। खैर राम मोहन उनके सामने बड़ी विनम्रता पूर्वक अपने विचार रखते थे किन्तु अपनी रूढ़िवादी जड़ों से जुड़े लोगों ने राम मोहन का विरोध किया और आक्रोश में आकार उन पर हमला भी किया लेकिन किसी तरह वे वहाँ से बच निकले। इसके बाद वहाँ से बनारस आ पहुंचे, यहाँ राम मोहन ने हिन्दू शास्त्र और मान्यताओं पर अध्ययन किया। कुछ समय बाद वे ईस्ट इंडिया के लिए काम करने लगे इसी बीच राम मोहन समाज में फैली आज्ञानताओं जैसे की सती प्रथा, जातिवाद, अशिक्षा, छुआछूत आदि पर भी प्रदर्शन कर लोगों को समझाने लगे, वे मूर्ति पूजा के भी खिलाफ थे, उनके इस व्यवहार से उनकी माता तारिणी देवी सहमत नहीं थी और उन्होंने राम मोहन को अपने घर से बेदखल भी कर दिया। राम मोहन घर छोड़ने के बाद शमशान घाट के पास घर बनाकर रहने लगे, ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए काम करते समय वे दीवान एवं राजदूत के रूप में भूटान गए। इसके पश्चात राम मोहन सन 1814 में कलकत्ता आ गए और अपनी ईस्ट इंडिया कंपनी की नौकरी छोड़ वे समाज हित के कार्यों में लग गए। राम मोहन ने यहाँ की लेख और ‘द इन्क्रोचमेंट ऑन द राइट्स ऑफ द हिन्दू फीमेल्स’ नामक एक किताब भी लिखी जो कई भाषाओं में प्रकाशित हुई। अपने जीवन के 18 वर्ष के संघर्ष के बाद राम मोहन सती प्रथा को प्रतिबंधित कराने में साल हुए जिसके चलते उस समय के गवर्नर जनरल विलियम बैंटिक ने 4 दिसंबर 1829 को कानूनी तौर पर बंद करने का आदेश दिया। इस आदेश को बंद कराने के लिए धर्म के ठेकेदारों ने कई प्रयास किए लेकिन राम मोहन ने अंततः इस प्रथा को बंद करवा ही दिया। इसके बाद तो जैसे कट्टर धर्म पंथी और उनके स्वयं के रिश्तेदार और खुद उनकी माता भी उनके खिलाफ हो गई, उन्होंने राम मोहन के खिलाफ कई झूठे मुकदमे दायर कीये किन्तु जल्द ही सत्य सामने आया।

राम मोहन ने 20 अगस्त सन 1828 ब्रह्म समाज का भी गठन किया, उन्होंने फारसी और बांग्ला भाषा में समाचार पत्र भी प्रकाशित कीये। इस समय अंग्रेजों के अत्याचार भी बढ़ने लगे थे जिसका राम मोहन ने जमकर विरोध किया और आवाज उठाई जिसके लिए उन्हें इंग्लैंड भी जाना पड़ा जिसमें वे अकबर द्वितीय के दूत बनकर गए और उन्हें ‘राजा’ की उपाधि भी अकबर द्वितीय द्वारा ही दि गई थी। इंग्लैंड जाकर उन्होंने भारत की समस्या सामने रखी। इसके बाद वे फ्रांस, लंदन भी गए और आखिरकार उनके तर्कों को सहमति मिली परंतु इसके बाद वे अस्वस्थ रहने लगे और बीमार रहने लगे। अंततः 27 सितंबर 1833 को इंग्लैंड के ब्रिसटल में धरती माँ के सपूत राम मोहन जी का देहांत हो गया।

निष्कर्ष

आज के आर्टिकल में हमने राज राम मोहन राय का जीवन परिचय ( Raja Ram Mohan Roy Biography in Hindi ) के विषय पर विस्तार से बताया है। आशा करती हूँ की आपको हमारे द्वारा दी गई जानकारी पसंद आई होगी, आप अपने सुझाव हमें कमेन्ट बॉक्स में कमेन्ट कर सकते हैं या ईमेल भी कर सकते हैं। हमारी वेबसाईट पर अपना मूल्यवान समय देने के लिए धन्यवाद, इसी तरह हमसे जुड़े रहिए ताकि आपको नए-नए विषयों को जानने का मौका मिले। तब तक के लिए नमस्कार दोस्तों।


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Shivam Kumar

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